चांद और सूरज देखकर मुझको जाने क्यों शर्माते हैं
खड़ा देखकर सामने मुझको बादल में छुप जाते हैं
कुदरत का हर रंग बदलता, लाल गुलाबी पीला होता
हरियाली खेतों की बदलकर नीला या मटमैला होता
ऊंची गरदन वाले पेड़ भी क्यों नीचे झुक जाते हैं
चांद और सूरज देखकर मुझको जाने क्यों शर्माते हैं
ऊंची-ऊंची पर्वत चोटी पहने धोती कुर्ता टोपी
पानी की मछली भी कहती काश मैं धरती पर होती
इन गुलशन के फूलों में भंवरे क्यों छिप जाते हैं
चांद और सूरज देखकर मुझको जाने क्यों शर्माते हैं
मुझे देखकर नदी भी अपनी राह बदलती है
सन सन करके कान में मेरे हवा भी कुछ कहती है
झरने पर्वत से गिरते हैं क्यों स्वर बदलते हैं
चांद और सूरज देखकर मुझको जाने क्यों शर्माते हैं
मेरा तो जलवा ऐसा है पत्थर भी फट जाते हैं
लोभ और क्रोध के बस में दोस्त को दोस्त मरवाते हैं
बाप से बेटा झगड़ा करता, पति पत्नी से लड़ता है
गद्दी जल्दी छोड़ दे बूढ़े, चेला गुरु से कहता है
काले-काले बादल भी यहां बरस नहीं पाते हैं
चांद और सूरज देखकर मुझको जाने क्यों शर्माते हैं
-हरेन्द्र रावत, दिल्ली-
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सुन्दर अभिव्यक्ति
bahut acchai kavita hai
good poem
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