मानव द्वारा की जा रही अप्राकृतिक गतिविधियों के कारण बढ़ते जल प्रदुषण से जल निकायों (नदियों, झीलों, समुद्रों और भूगर्भीय जल) पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है और अगर इंसान इसी तरह अपने नितांत निजी फ़ायदों और सिर्फ़ वर्तमान लाभों की पूर्ति हेतु अपना यह दुष्कृत्य करता रहेगा तो वह दिन दूर नहीं जब इस पृथ्वी पर पेय जल के प्राकृतिक स्रोत अपना मूलभूत अस्तित्व खो देंगे. ज़रा सोचिये ! अगर ऐसा हुआ तो हमारे पास इस क्या समाधान होगा? मैंने इस बारे में कुछ लोगों से बात की तो पाया कि कुछ इस मसले पर वाक़ई गंभीर थे और उन्होंने यह अहद (प्रण) लिया कि वे भविष्य में अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश करेंगे कि जल-प्रदुषण न हो वहीँ कुछ ने जल प्रदुषण के समाधान के तौर आधुनिक होते विज्ञान के अविष्कार की तरफ़ तवज्जोह दिलाई और जल प्रदुषण पर किसी भी तरह की चिंता से इन्कार किया. उनका तर्क था कि यदि विज्ञान पानी के विकल्प के रूप मे कुछ खोज ले तो ये एक सकारात्मक दृष्टिकोण होगा क्यूंकि निरंतर तेज़ी से बढ़ते वैज्ञानिक आविष्कारों को देखते हुए यह कोई मुश्किल काम नहीं!!
क्या मानव की यह सोच सही है, अगर हाँ तो यह सोच मानव के लिए खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के बराबर है. मिसाल के तौर पर एक व्यक्ति एक सामान को तोड़ रहा है और उससे जब पूछा जाता है कि भैया ! ऐसा क्यूँ कर रहे हो? सामान को तोड़ोगे तो तुन्हें कितना नुक्सान हो जायेगा? तो प्रत्युत्तर में वह कहता है कि "कोई चिंता नहीं है मैं इस के विकल्प में दूसरा सामान क्रय कर लूँगा!" वैसे तो यह तर्क सामान्य सा है लेकिन क्या यह तर्क किसी समस्या के वृहद् रूप में कारगर साबित हो सकता है? तो मेरा जवाब है"नहीं"!!!
मानव द्वारा की जा रही अप्राकृतिक करतूतों का खामियाज़ा सिर्फ़ जल संकट ही पैदा नहीं कर रहा है बल्कि ज्वालामुखी, सुनामी अथवा कटरीना जैसे तूफ़ान और ज़लज़ले (भूकंप) को भी असमय विनाश की दावत दे रहें हैं. उधर जल की गुणवत्ता, जल की पारिस्थितिकीय स्थिति में तब्दीली को जल प्रदुषण के रूप में नहीं देखा जा रहा है!
जल प्रदुषण के कई कारण हैं. जैविक अपशिष्ट पदार्थ इनमें से एक है. जल प्रदुषण ही नहीं पूरी पारिस्थितिकी प्रणाली पर जैविक अपशिष्ट पदार्थों ने प्रतिकूल प्रभाव किया है जैसे मल-विसर्जन, कृषिकीय अपशिष्ट पदार्थ आदि. जिसके कारण जल में ओक्सीज़न की मात्रा में कमीं आती है. उद्योग कचरा जैसे भारी धातु, कार्बनिक ज़हर, तेल, खाद्य पदार्थ, पोषक तत्व व ठोस पदार्थों आदि का 'विसर्जन' भी जल प्रदुषण में अपनी करामात दिखा रहा है.
अपशिष्ट पदार्थ की वजह से सिर्फ़ जल प्रदुषण ही नहीं हो रहा है बल्कि ओक्सीज़न की मात्रा में भी कमी हो रही है एवम ग्लोबल वार्मिंग में भी इज़ाफा हो रहा है. एक आकंडे के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग की यह गति जारी रही तो सन 2030 तक इतनी गर्मी पढेगी जो हम मानव सह नहीं सकेंगे.
तो आईये हम सभी मिल कर आज से यह संकल्प लें कि हम पूरी कोशिश करें कि हमारे हाथों आज से किसी भी प्रकार का जल प्रदुषण नहीं होगा और हम इसके रोकथाम के लिए भरकस कोशिश करें!
अगले अंक में पढ़ें क्या होगा सन 2070 में, जब पीने योग्य पानी न होगा !
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सामयिक पोस्ट लिखी है।
विचारणीय पोस्ट। बधाई।
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बेहद जरूरी पोस्ट .हम चेतें .
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